वैदिक-यात्रा

जीवन एक यात्रा है;
जीवात्मा से परमात्मा की ओर और संसार से स्व की ओर. . .

याति त्राति रक्षतीति वेदानुकूल वेदशास्त्र
सम्मत या यात्रा सा वैदिक यात्रा

yāti trāti rakṣatīti vedānukūla vedaśāstra
sammata yā yātrā sā vaidika yātrā

  1. वैदिक अनुभवों व अनुभूतियों के द्वारा सर्वशक्तिमान् की प्राप्ति के लिये की जाने वाली यह एक यात्रा है, जिसकी रूप-रेखा स्वयं सर्वशक्तिमान् परमात्मा ने ही रची है । वही परमात्मा ऋषि-मुनियों के द्वारा संकलित पवित्र वेद शास्त्रों….. के माध्यम से स्वयं तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं, इस यात्रा को सुखद बनाते हैं । परन्तु; गुरु के बिना यह यात्रा अपूर्ण ही है, क्योंकि; गुरु ही शास्त्रों के मर्म को सुलभता से समझाते हुए अपने जीवन में उतारने की दिव्य कला सिखाते हैं, जिससे मनुष्य इस भवसागर को सहज ही पार कर जाता है ।

गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई ।
जौं बिरंचि संकर सम होई ।। (श्रीरामचरितमानस ९२.५ )

वेदों के माध्यम से गुरु के निर्देशन में होने वाली यात्रा ही “वैदिक यात्रा” है ।  जो एक मात्र परम सत्य की यात्रा है । अन्य सभी यात्रा आधारहीन एवं काल्पनिक हैं । इसकी पुष्टि श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण करते हैं ।

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ॥ (श्रीमद्भगवद्गीता १६/२३)

जो मनुष्य अपनी इच्छाओं और महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिये शास्त्र में लिखित आदेशों का पालन नहीं करते हैं, वे अपने जीवन में न तो पूर्णता को ही प्राप्त होते हैं, न सुख और न उत्तमगति ही प्राप्त करते हैं । अर्थात् लोक भी नहीं सँवार पाते और परलोक भी बिगड़ जाता है । अतः शास्त्रों के प्रमाणानुसार ही मनुष्य को जीवन में कार्य करना चाहिये ।

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥ (श्रीमद्भगवद्गीता १६/२४)

अतः मनुष्य को सदैव शास्त्रों को प्रमाण मानते हुए ही कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय लेना है । तो आयें, वैदिक यात्रा के माध्यम से गुरु कृपा के निर्देशन में वैदिक-पथ पर चलते हुए जीवन जीने की इस अद्भुत शैली को स्वयं जी कर इस देव दुर्लभ मानव जीवन को दिव्यातिदिव्य बनायें ।

Vaidik Yatra

प्रतीक चिह्न

वैदिक यात्रा के मूल सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रतीक चिह्न में इस प्रकार की गई है ।

वटवृक्ष, जो कि विश्वास का प्रतीक है, जिसकी गहरी शाखाएँ निष्ठा को दृढ़ व श्रद्धा को मज़बूत करते हुए हरी-भरी पत्तियों के रूप में एक ख़ुशहाल जीवन को दर्शाती है ।

इस वृक्ष की छाँव में रखा हुआ ग्रन्थ ही वेद है तथा उसके सम्मुख गुरु के रूप में स्वयं महर्षि वेदव्यास जी विराजमान हैं । वेद, मानव जीवन के पथ का पाथेय है, जो मानव जीवन की वेदना मिटाता है । परन्तु; गुरु के बिना इन वेद-पुराणों के मर्म को न समझ पाने के कारण वेद के विस्तारक तथा पुराणों के प्रकाशक भगवान् वेदव्यास का चित्र वेद ग्रन्थ के सम्मुख दर्शाया गया है । भगवान् वेदव्यास का प्राकट्योत्सव गुरु के रूप में मनाया जाना ही यह संकेत करता है कि बिना गुरु के न तो जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझा जा सकता है और न ही जीवन के परम लक्ष्य को ही प्राप्त किया जा सकता है । जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कराने वाले इस पथ पर अग्रसर होने वाली यात्रा ही वैदिक यात्रा है ।

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