मनुष्य जीवन की सार्थकता “आत्मज्ञान” में

मनुष्य जीवन की सार्थकता “आत्मज्ञान” में

आत्मज्ञान प्राप्त करना मानव जीवन का मूल लक्ष्य है । यह संसार कैसे बना ? पदार्थों का आदि कारण क्या है? शरीर और अस्थि, मांस और रक्त आदि की क्या विभिन्नता है और इन सब से आत्मा कैसे अलग है ? मनुष्य को इस सब का ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए । ( ऋग्वेद १/१६४/४ )


मानव तन परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ उपहार है । पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार, न जाने कितनी योनियों में भटकने के पश्चात हमें यह शरीर मिला है । संसार में किसी भी प्राणी की शरीर रचना इतनी उत्कृष्ट नहीं है जितनी मनुष्य की है । मनुष्य को ही परमेश्वर ने सर्वगुण संपन्न शरीर दिया है । इसका एक-एक अङ्ग, एक-एक इन्द्रिय अपनी कार्यक्षमता में अद्वितीय है ।


अधिकतर मनुष्य इस शरीर को ही सब कुछ मान लेते हैं और इसके आगे सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझते । हर समय इस शरीर को सजाते संवारते रहते हैं और इन्द्रियों को ही तृप्त करने में लगे रहते हैं । इसमें विद्यमान आत्मा को अधिकांश लोग भूल जाते है । वह यह भूल जाते हैं कि शरीर तो नश्वर है लेकिन आत्मा तो अजर-अमर है । शरीर तो नष्ट हो जाता है, केवल कुछ समय के लिए ही परमेश्वर ने कृपा करके हमें दिया है । यह तो साधन मात्र है, आत्मा का निवास स्थान है जिसके माध्यम से वह मोक्ष मार्ग पर चलकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है ।


मानव जीवन का लक्ष्य क्या है ? अधिकतर व्यक्ति स्वर्ग प्राप्ति को ही एकमात्र लक्ष्य मानते है ।परंतु; यह स्वर्ग है कहां ? यह तो हमारी मनः स्थिति द्वारा निर्धारित और निर्मित है । हम स्वयं ही अपने आचरण और परिस्थितियों के आधार पर स्वर्ग या नर्क की स्थिति उत्पन्न कर लेते हैं । यह आवश्यक है कि हम अपने जीवन का स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित करें ।


जीवन का एकमात्र लक्ष्य हमारे भीतर के अव्यक्त देवत्व को दृढ़ता पूर्वक व्यक्त करना और अपनी वास्तविक सत्ता का साक्षात्कार करना है । एक ही परमात्मा सबके भीतर बैठा है और वही सब की अंतरात्मा है । वही कर्मफल दाता है और वह सब के अंदर है । प्रत्येक मनुष्य देवता का स्वरूप है, परिस्थितिवश वह अपने मार्ग से भटक गया है, देवत्व से वह भटक गया है । इस महान सत्य को जानकर इस देवत्व को अपने आचरण में उतार लेना ही मनुष्य का परम लक्ष्य है ।

इस आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेना मन, वाणी और कर्म से पवित्र हुए बिना सम्भव नहीं है । मन तो चञ्चल है यह कभी खाली रहता ही नहीं, या तो उसमें पापकर्मों का रसास्वादन करने की लालसा रहती है या तो सत्कर्म की सुगंध फैलाने की उत्कण्ठा, इच्छा । मन में यही विचार उसकी वाणी को प्रभावित करते हैं और उसके अनुसार ही उसके कर्म भी होते हैं । आत्मज्ञान से उसमें पवित्र विचार जागृत होते हैं ।


अहंकार को त्यागकर “आत्मवत् सर्वभूतेषु” की भावना से संसार की समस्त प्राणियों में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लेने से ही मनुष्य पापकर्मों से बचा रहता है तथा अपने दैवी गुणों की अभिवृद्धि करता है । मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है । “आत्मज्ञान” को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है ।

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Vaidik Sutra