
जो जागृत हैं, आलस्य और प्रमाद से सदैव सावधान रहते हैं उन्हीं को इस संसार में ज्ञान विज्ञान प्राप्त होता है । उन्हीं को शान्ति मिलती है, वे ही महापुरुष कहलाते हैं । ( ऋग्वेद ५/४४/१४ )
जो व्यक्ति जागृत है वह हमेशा सतर्क रहता है । “उत्तिष्ठत जागृत प्राप्य बरान्निबोधत”, उठो, जागो और जब तक ध्येय को नहीं प्राप्त कर लो, तब तक रुको नहीं । यह स्वामी विवेकानन्द का प्रमुख सन्देश है ।
एक भजन भी है – “उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है ।” जो सोवत है वो खोवत है, जो जागत है वो पावत है ।। अर्थात् उठो और जागो तभी कुछ पा सकोगे अन्यथा यह मनुष्य जीवन व्यर्थ चला जायेगा । पहले उठो फिर जागो । मतलब हमारे ऊपर अज्ञानता का, आलस्य का, प्रमाद का, तमोगुणों का नाश छाया है उससे हमारी आंखे मुंदी हुई है, तब हम जागे कहां है ? हम सावधान और अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहें, जागृत रहें । अपने कर्म करें, आलस्य के वशीभूत न हों । कबीरदास का कहना है – “काल करे सो आज कर, आज करै सो अब । पल में परलय होयगी, बहुरि करोगे कब ? इस प्रकार का अभ्यास करते रहने से परमेश्वर के गुणों के आप संवाहक बन जाते हैं ।
यह संसार जागरूक लोगों के लिए ही बना है । जागरूक लोग ही आलस्य को छोड़कर अपने पुरषार्थ से सच्चा ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाते हैं । ज्ञान-विज्ञान से सबकी सुख-शान्ति के लिए विभिन्न उपयोगी वस्तुओं का निर्णय करते हैं । इससे उन्हें सुख और ऐश्वर्य प्राप्त होता है । उन्हें संसार की समस्त सुविधाएं आसानी से मिल जाती हैं ।
आलसी लोग सुख-सुविधाओं के पीछे भागते हैं और उन वस्तुओं की कामना करते हैं लेकिन पुरषार्थ के अभाव में उन्हें कुछ नहीं मिलता है । वे तामसिक प्रवृत्ति के लोग होते हैं, सात्विकता उनसे बहुत दूर रहती है । आलस्य से बढ़कर अधिक घातक शत्रु और कोई नहीं है । आलस्य और प्रमाद को त्यागकर जब तक उद्यमशीलता का मार्ग नहीं अपनाया जाएगा तब तक, स्थायी प्रगति असम्भव है ।
परमात्मा की कृपा प्राप्त करने के लिए हमें उनके चरणों में अपने उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, भक्ति और पराक्रम के पुष्प चढ़ाने होंगे । भगवान् भी उसी की सहायता करते है जो स्वयं पुरषार्थ करते हैं । संस्कृत की एक सूक्ति है – “उद्यमेन हि सिद्धयन्ति, कार्याणि न मनोरथें, नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशान्ति मुखे मृगा ।” अर्थात् किसी कार्य की सिद्धि उद्यम करने, परिश्रम करने से होती है, सोचने मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं होती है । जैसे सोते हुए शेर के मुँह में मृग स्वयं जाकर नहीं प्रवेश करता है । शेर को उद्यम,परिश्रम करना पड़ता तब जाकर उसे क्षुधा पूर्ति के लिए मृग मिलता है ।
एक और संस्कृत की प्रसिद्ध कहावत है – आलस्यम् हि मनुष्यायाम्, शरीरस्यो महारिपु । अर्थात् आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु हैं । इसलिए आलस्य का त्याग करके आप अपने समाज तथा देश की उन्नति कर सकते हैं । इसलिए आलस्य को परित्याग करके आप भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त कर सकते हैं ।