वैदिक संस्कृति सदाचार को जितना महत्व प्रदान करती है उतना अन्य उपादानोंको नहीं । चाहे हम अद्वैत को माने चाहे द्वैत को, यदि हम सदाचारी नहीं है तो मान्यता निरर्थक है – बालू में से तेल निकालने के समान है । और यदि हम सदाचारी है तो ईश्वर में विश्वास या अविश्वास का प्रश्न उठेगा ही नहीं । और यदि सदाचारी नहीं है तो वेद के शब्दों में ‘ऋतस्य पन्थां न तरन्ति दुष्कृतः ।”
दुराचारी सत्यके मार्गको पार कर ही नहीं सकते ।
सदाचारी व्यक्ति ही सत्य पथ का अनुगामी है और जो सत्य पथ पर चल रहा है, वह एक दिन उसे पार कर ही जाएगा । प्रभु को प्राप्त कर ही लेगा क्योंकि “ऋतुस्य मा प्रदिशो वर्धयन्ति”- तात्पर्य यह कि ऋतके आदेश – सदाचार के संकेत प्रभु का संवर्धन करने वाले हैं । “स्वर्गः पन्थाः सुकृते देवयानः” अर्थात् स्वर्ग या ज्योति की ओर ले जाने वाला देवयान पथ सुकृति, सदाचारी व्यक्ति के ही भाग्य की वस्तु है । इस प्रकार सदाचारी शब्द पथ का पथिक जाने या अनजाने उस परमगति परमतत्वकी और अपने आप चला जा रहा है ।
सदाचार ऊपर उठाता है और दुराचार गिराने वाला होता है । सदाचार से निरोगता प्राप्त होती है, आयु बढ़ती है और प्राणी ऊपर होता है । मानव यहाँ ऊँचा उठने के लिए आया है, गिरने के लिए नहीं । अतः जो गिराता है, उसे ही हमें गिरा देना चाहिए और जो उठाता है उसे अपना लेना चाहिए, इसी में कल्याण है । वेद सदाचारके लिए मन को शिवसंकल्पमय बनाने की आज्ञा देते हैं – ‘तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।’ मन में शिव संकल्प उठेंगे तो वे आचरण में भी फलीभूत होंगे क्योंकि ‘यन्मन्सा मनुते तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत्कर्मणा करोति ।’ का सिद्धान्त सर्वांशतः सत्य है ।
स्वस्तिपथ सदाचारका पथ है । यह दानी, अहिंसक और ज्ञानियों का पथ है । हमें सदाचार की शिक्षा के लिए उन्हीं के सत्संग में रहना चाहिए । सदाचार में सत् है श्रद्धा में श्रत् है । सत् और श्रत् प्रायः एक ही है । यही धारण करने वाले धर्म भी है । ऐसे धर्मों का अध्यक्ष – ‘अध्यक्षं धर्माणाम् ‘ अग्रि है, सर्वाग्रणी परमेश्वर है । वही सत और श्रत् का निधान है । उसीकी प्रति धर्म की प्राप्ति है, सत् और श्रत् की उपलब्धि है । इस प्रकार परमेश्वर सत्य और धर्म एक ही है ।
सदाचार के पथ के पथिक को कभी प्रमाद में नहीं पड़ना है और ना व्यर्थ के प्रलाप में भाग लेना है । ‘मा नः निडा ईशत मोत जल्पिः । निद्रा या जल्पना कोई भी हमारे ऊपर शासन न कर सके ।
‘इच्छन्ति देवाः सुन्वन्तं न स्वप्राय सृपह्यन्ति’ क्योंकि जो निद्रालु है, सोता है, देव उसकी कामना नहीं करते । दिव्य गुण या सदाचार उससे कोसों दूर भाग जाते हैं ।
भगवान् उसी से सहयोग करते है जो सदाचारी है, सहनशील है, त्यागपारायण है । सदाचारके क्षेत्र में इसलिए कोई छुट्टी नहीं है । अवकाश का दिन नहीं है । इसमें एक दिन तो क्या एक क्षण के लिए भी छुट्टी मानना, सदाचार से पृथक् होना, वर्षों की कमाई पर पानी फेर देना है । एक पल का भी प्रमाद अनन्तकाल तक के पश्चाताप का कारण हो सकता है ।