अच्छे, बुरे सभी कर्म मनुष्य से ही होते हैं । दुर्बलता मनुष्य के लिए अज्ञानता का प्रतीक है । श्रेष्ठता प्राप्त करने के लिए आत्मबल प्राप्त करना चाहिए । यह तभी सम्भव है जब मनुष्य बुराइयों को त्यागकर सन्मार्ग पर चले । ( अथर्ववेद २/११/१ )
मन सांसारिक विषयों की ओर तीव्रता से भागता है परन्तु; इसे विषय वासनाओं से हटाना चाहिए । एक बार यदि इसे रोक लिया जाए तो यह शांत और पवित्र हो जाता है । मन को बाह्य जगत से जहां तक वापस लाना सम्भव होगा, वहां तक हमारा मन इन्द्रिय-विषयों के पीछे नहीं दौड़ेगा । जब मन बाह्य जगत से पूर्णतया हट जाएगा तो हम परम लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे ।
क्या मन को पूरी तरह से बाह्य जगत से हटा लेना सम्भव है ? जबकि सामान्य लोगों को भौतिक जगत में ही रहना पड़ता है, फिर लोग उससे पूरी तरह से अलिप्त ( लिप्त हुए बिना ) कैसे रह सकते हैं ? साधारण व्यक्ति और ज्ञानी व्यक्ति में अंतर है । ज्ञानी व्यक्ति सांसारिक कर्तव्य की पूर्ति करते हुए भी भोग- विषयों के प्रलोभन में नहीं फंसते । पर साधारण व्यक्ति प्रयास करने पर भी इस जंजाल से आसानी से छुटकारा नहीं पा सकते । यत्र-तत्र सर्वत्र विषयों के जंगल में ही रहते हैं, इनसे घिरे हुए भी है तथा इसमें निवास करते हैं । मानव के लिए भौतिक संसार के अस्तित्व का अंत नहीं है । तब बाह्य जगत से हटने का क्या अर्थ हो सकता है ? इसका अर्थ है अपने अज्ञान को त्यागकर ज्ञानवान बनना है । ज्ञानी व्यक्ति के पास आत्मदृष्टि होती है, वह भले ही भौतिक संसार में रहता है, जो उसके मन पर प्रभाव डाल सकता है किंतु; अपनी सत-असत की विवेकरूपी तलवार की सहायता से वह इन्द्रिय प्रलोभनों का निषेध कर सकता है ।
हमें अपनी इन्द्रियों का विशेष ध्यान रखना चाहिए और उनको समुचित प्रकार से निर्देशित करना चाहिए । हमारे अंदर तो पहले से ही अनेक अशुद्ध प्रवृत्तियां विद्यमान हैं, हमें उनका विनाश करना चाहिए और अच्छी प्रवृत्तियों के द्वारा उनका विरोध करना चाहिए । बाह्य जगत से केवल अच्छी आदतें ही स्वीकार करनी चाहिए । कुछ लोग सोचते हैं कि उनके संस्कार ठीक नहीं है और उनका मन केवल अशुद्ध प्रवृत्तियों को ही ग्रहण करता है । पर उनका सोचना निरर्थक है और उनके अज्ञान और दुर्बलता का प्रतीक है । गलतियां मनुष्य से ही होती है और स्वयं उसी में यह शक्ति है कि वह उसका निराकरण कर सके । अपनी बुरी आदतों से छुटकारा पाने की असीम शक्ति परमात्मा ने सबको दी है । यदि वास्तव में अपने दुर्गुणों और दुर्व्यसनों से छुटकारा चाहता है और इसके लिए प्रयास करता है असम्भव कुछ भी नहीं है ।
यह सत्य है कि आदत हमारा दूसरा स्वभाव है किन्तु इससे भी बड़ा सत्य है जो इसे आदत को प्रभावहीन बना देता है । यदि हमारे आदत हमारा दूसरा स्वभाव है तो हमारा कोई प्रथम स्वभाव भी है मूल हम लोग दैवी स्वभाव के हैं । यदि शारीरिक इच्छाओं के कारण हम केवल शुद्ध विचारों को ही ग्रहण करते हैं तो यह भी सत्य है कि हम स्वभाव से देवता है तथा देवत्त्व हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है । हमें इस सकारात्मक सोच को विकसित करना चाहिए, श्रेष्ठ विचारों का सहारा लेकर अपनी बुरी आदतों पर विजय प्राप्त करना चाहिए ।