गृहस्थ लोग अपने पुरुषार्थ द्वारा परमात्मा की कृपा से धन बल का संचय कर सुख प्राप्त करें । धन शुचिता पूर्वक कमाना चाहिए जिसमें पवित्रता हो, बल हो लेकिन उस बल का प्रयोग किसी की रक्षा के लिए हो । ( अथर्ववेद ७/१७/१ )
वेद धन कमाने का निषेध नहीं करता बल्कि वेद तो कहता है कि खूब धन कमाओ परन्तु; धर्म और न्यायपूर्वक । जो व्यक्ति उत्तम मार्ग से धर्मानुसार धन उपार्जित करता ( कमाता ) है, लोभ के कारण अन्याय और अधर्म से, दूसरों का शोषण करके, दूसरों का अधिकार छीनकर धन कमाने का कभी विचार भी नहीं करता वही “आदर्श पुरुष” कहलाता है । हे ईश्वर ! धन प्राप्ति के लिए आप हमें सुपथ पर चलाइए, आदर्श पुरुष परमात्मा से ऐसा ही प्रार्थना करते हैं ।
अनीति और अन्याय के द्वारा कमाया हुआ धन जुगनू की भांति चमकता है और थोड़ी देर के लिए हमें चकाचौंध कर देता है, लेकिन फिर अंधकार ही हो जाता है । सद्गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह अपने पुरुषार्थ के किसी प्रकार की कमी नहीं आने दे । अधिक से अधिक से अधिक परिश्रम करते हुए जो भी धन कमाए उसी में संतुष्ट रहे । किसी को कष्ट न देकर, दुर्जनों के सामने न झुककर और सन्मार्ग को न छोड़कर जो थोड़ा भी कमाया जाता है वही बहुत कुछ है । अनीति से कमाया हुआ धन हमारे लिए सुख-सुविधाओं का ढेर तो लगा देता है परंतु; साथ-ही-साथ परिजनों को विलासी, आलसी, लोभी, अकर्मण्य और रोगी बना देता है । ऐसे धन से सुख कम और कष्ट अधिक मिलता है । साथ ही साथ ऐसा धन परिवार में दुर्गुण और दुर्व्यसन भी लाता है । इसके दुष्प्रभाव से परिवार के अधिकांश सदस्य शारीरिक और मानसिक अवनति को प्राप्त होते हैं तथा आपसी मतभेद और विघटन पैदा होता है ।
हमारे शास्त्रों ने गृहस्थों का अर्थोपार्जन की पवित्रता पर विशेष ध्यान देने का आग्रह किया गया है । इसके साथ ही साथ हर धन का उचित ढंग से सदुपयोग करना भी जरूरी है । घर को ठीक तरह से बसाने के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती है, गृहस्थों को उनकी व्यवस्था जुटाने का प्रयास करना चाहिए और आवश्यक आवश्यकताओं के अलावा भोग विलास की वस्तुओं पर बहुत ध्यान नहीं देना चाहिए ।
वेदों की इस भावना की अधिकांश जगहों पर अवहेलना हो रही है । सौंदर्य प्रसाधन और विलासिता की वस्तुओं पर आज तक अधिक परिवारों में व्यय किया जा रहा है । हमारा खान-पान, रहन-सहन तथा पोशाक भी दिखावा तथा आडंबरपूर्ण हो गया है । भारतीय परिवेश में विदेशी खानपान और पोशाक उपयोग नहीं है ।
इस प्रकार धन की पवित्रता बनाए रखने का पुरुषार्थ तथा संभव हो सकता है जब व्यक्ति में पर्याप्त आत्मबल हो । सांसारिक प्रलोभनों के प्रति उदासीनता दिखा सकने का साहस हो तथा परिवार के सभी सदस्यों में विचारों की समानता हो । सुसंस्कारित परिवारों में बच्चों को बचपन से ही इस प्रकार के त्याग की शिक्षा दी जानी चाहिए । आगे चलकर ऐसे बच्चों में आत्मविश्वास के साथ कुरीतियों का सामना करने का साहस रहता है । ऐसे परिवार में सभी लोग सुख और संतोष के स्वर्गीय वातावरण में रहते हुए आत्मोन्नति ( अपने आत्मा की उन्नति, आत्मा में दैवी गुणों का समावेश ) करते हैं और एक स्वस्थ समाज के निर्माण में सहायक होते हैं । सत्कर्म से कमाए हुए धन से ही परिवार में सुख-शांति आती है ।