प्रायः यह देखने या सुनने में आता है कि भगवान का भजन-स्मरण करना चाहिये । बात बिल्कुल ठीक है, पर फिर यह विचार भी आता है कि कब से करें ?? क्योंकि प्रायः लोगों के मन में यह भ्राँति होती है कि भगवान् का भजन-स्मरण अभी से क्या करना ? अभी तो खेलने-कूदने, कमाने-धमाने की उम्र है । अभी तो हम Young हैं, Modern हैं, बहुत Busy हैं, आदि अनेक बहाने । भजन तो वृद्धावस्था में करने का काम है, जब अन्य कुछ काम नहीं रहता अर्थात् बुढ़ापे में कोई काम-धाम तो रहता नहीं, तो चलो भजन ही कर लेते हैं । मानो भगवान् पर थोड़ा सा एहसान कर देते हैं ।
बचपन में खेल्या खाया, जवानी में हल हाँक्या ।बुढ़ापे में माला लीन्हीं, ठाकुरजी थारा भी मन राख्या ॥
सच तो यह है कि जो यह कह रहा है कि बुढ़ापे में भजन करेंगे, बेचारा जानता ही नहीं है, तब तक रह पायेगा भी या नहीं ?? ऐसे में उसने, ईश्वर की अनन्त कृपा-करुणा से प्राप्त इस मनुष्य जीवन को मिट्टी कर दिया ।वास्तव में तो भजन करने की यदि कोई सबसे पवित्र अवस्था है, तो वह बचपन ही है । छल-कपट से रहित, शुद्ध-स्वच्छ निश्छल-मन, पवित्र हृदय के भाव केवल बचपन में होते हैं । उसी वक्त से सकारात्मक ऊर्जा ( परमात्मा ) से जुङ गए, तो जीवन के किसी भी पड़ाव पर आप भटक ही नहीं सकते और फिर कच्चे घड़े पर चाहे जो आकृति बना दो, वही छप जाती है । बिल्कुल ऐसे ही बचपन की अवस्था से ही भजन होने शुरू हो जाए, तो निःसंदेह उसके चित्त में परमात्मा छप जाएँगे और उसका आगामी जीवन निखर उठेगा ।
कोई कहे कि आपकी बात हम कैसे मानें ? कोई प्रमाण है आपके पास तो कहिए ??
“शास्त्र” प्रमाण हैं । हमने अनेकों बार गुरूदेव व अन्य संतों से सुना है कि भक्त ध्रुव के चरित्र से शिक्षा लीजिये, उन्होंने मात्र पाँच वर्ष की अवस्था में ही भगवान् का साक्षात्कार कर लिया । इन भक्तों के चरित्र केवल सुनने के लिए ही नहीं, वरन्; जीवन में उनके गुण उतारने के लिए हैं । ऐसे अनेक प्रमाण हैं । जैसे कि भक्त प्रह्लाद, भक्तिमती मीराबाई आदि ।
भक्त प्रह्लाद ने भी भगवान् का भजन करने के लिए कुमार अवस्था अर्थात् पाँच ( 5 ) वर्ष की अवस्था ही बतायी है, तभी से भगवान् का भजन आरम्भ कर देना चाहिये – ‘कौमार आचरेत्प्राज्ञ: धर्मान् भागवतानिह’
जिनके प्रति हमारी श्रद्धा होती है, उन्हें हम सबसे क़ीमती वस्तु भेंट ( अर्पित ) करना चाहते हैं । है ना ? ठीक वैसे ही, किसी साधारण व्यक्ति को भी जब हम फूलों का उपहार देते हैं, तो दुकानदार से बिल्कुल ताजा फूल ही तो लेते हैं ।
बस ऐसे ही हमारी श्रद्धा भगवान् में हो, और क्यों न हम उनको भी बिल्कुल बेशक़ीमती तरोताजा फूल अर्पित करें ?? हाँ, यही नया बेशकीमती तरोताजा फूल ही बचपन है । अतः भगवान् को अपना बचपन अर्पित करते हुए, उनका भजन-स्मरण इसी अवस्था से करना चाहिए । वृद्धावस्था तो मुरझाया हुआ फूल है और क्या हम किसी को भी मुरझाया हुआ फूल कभी देते हैं??? नहीं देते । वह तो बस कचरे के डिब्बे में ही जाता है ।
विलक्षण बात यह है कि बचपन यदि उनमें लगा दिया, तो फिर यह कभी मुरझा ही नहीं सकता, बल्कि; हमेशा खिला हुआ ही रहेगा – ‘जरायुष्मान्नबाधते’ और यह सब श्रीसद्गुरू भगवान् की कृपा से ही संभव होगा ।
भक्त प्रह्लाद-ध्रुव और मीरा, चरित यही बतलाते हैं । भजन करो बचपन से प्रभु का, सच्ची राह दिखाते हैं श्रीसद्गुरू ‘अनुराग’ हृदय से, हमको यही समझाते हैं ।‘शीतल’ खिले हुए पुष्प ही, प्रभु के मन को भाते हैं ॥