एक सूक्ष्म परिचय

महापुरुषों का जीवन अपने आप में एक खुली किताब होता है । उनका सही परिचय तभी मिल पाता है, जब हमें उनके चरणों की छाया में रहने का सौभाग्य प्राप्त हो । इसलिए पूज्य गुरुवर स्वनामधन्य भागवत-भूषण पं. श्री श्रीनाथ जी शास्त्री, पुराणाचार्य (पूज्य श्रीदादागुरुजी) का परिचय लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है ।

धर्मो मद्भक्तिकृत् प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम् ।
गुणेष्वसङ्गो वैराग्यमैश्वर्यं चाणिमादय: ।।
(श्रीमद्भागवत ११/१९/२७ )

dharmo madbhaktikṛt prokto jñānahak caikātmyadarśanam ।
gueśvasaṅgo vairāgyamaiṃvaryaṇ cāāimādaya: ।।
(śrīmadbhāgavata 11/19/27 )

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अगस्त्य गोत्र, त्रिप्रवर, माध्यान्दिन शाखा से सप्तपुरी के अन्तर्गत मथुरा नगरी में आश्विन कृष्ण तृतीया विक्रमसम्वत् तदनुसार २९ सितम्बर १९२३ को आपका जन्म हुआ । आपके पिता गोलोकवासी श्रीरतिरामजी मिश्र तथा माता श्रीमती गोपीदेवी थी । चार सन्तानों में एक बहन श्रीमती सावित्री देवी तथा अग्रज श्री गोपीनाथजी एवं श्रीअमरनाथ ब्रह्मचारीजी के कनिष्ठ भ्राता के रूप में आप सबके लाड़ले थे। सन् १९५० में आयुर्वेद विषय से आपने “आयुर्वेद विशारद” की उपाधि प्राप्त की । वृन्दावन में कुछ समय अध्ययनोपरान्त विद्या की नगरी काशी में जाकर आपने परम श्रद्धेय श्रीराममूर्ति पौराणिकजी से शिक्षा ग्रहण करते हुए सन् १९५२ में आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की ।

वृन्दावन आकर पूज्य गुरुवर श्रीनत्थीलाल जी से सप्ताह कथा की शैली, श्रीकेदारनाथ शास्त्रीजी से शास्त्राध्ययन करते हुए गुरुदीक्षा कोटा ( राज. ) के श्रद्धेय श्री देवकीनन्दन जी महाराज से प्राप्त की ।

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आपने रामार्चा (श्रीरामपूजन) भी अनेक बार कराई एवं अपने समय के मूर्धन्य विद्वान् ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वतीजी महाराज, प. पू. श्रीकरपात्रीजी महाराज, श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी महाराज, स्वामी श्रीविष्णु आश्रमजी महाराज एवं सन्तों में श्रीहरि बाबाजी महाराज, श्रीउड़िया बाबाजी महाराज, पूज्या श्रीआनन्दमयी माँ आदि को अनेक बार कथा सुनाने का सौभाग्य प्राप्त किया । परम विद्वान् श्रीशुकाचार्यजी के विद्यालय से प्रेरणा लेकर विप्र-बालकों के लिये निःशुल्क श्रीमद्भागवत विद्यालय के माध्यम से श्रीमद्भागवत भगवान् की सेवा का संकल्प लिया । जो सत्संकल्प सन् १९६४ में भगवत्कृपा से पूर्ण हुआ एवं आज भी श्रीवृन्दावनधाम में यथास्थान अनवरत चल रहा है । लगभग ७० वर्ष में आपने १५०० से अधिक कथायें रसिकजनों को पान कराई ।

श्रीमद्भागवत को साक्षात् श्रीकृष्णरूप ही जिन्होंने माना, ऐसे महापुरुष पूज्य शास्त्रीजी महाराज थे । वाणी में अत्यन्त मधुरता और प्राचीन पद्धति से कथा का वाचन, यह उनमें ही था ।

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२२ अगस्त २०१५ को श्रीतुलसीजयन्ती के अवसर पर सन्त श्रीमोरारी बापू के द्वारा आपको “व्यास अवॉर्ड” से सम्मानित किया गया। श्री तुलसी जयन्ती के अवसर पर सन्त श्रीमुरारी बापू दवरा यह व्यास अवार्ड का शुभारम्भ था । आपका कथन है कि मैं जो हूँ, वह सन्तों की कृपा से ही हूँ, मेरा अपना कुछ भी नहीं है ।

आपके तीन पुत्ररत्न क्रमशः डॉ देवेन्द्रनाथ शारत्री, डॉ. कृष्णकुमार शर्मा, डॉ. मनोजमोहन शास्त्री जी हैं । अब आपने अपने सुपौत्र, मध्यम सुपुत्र के पुत्र श्री अनुरागकृष्ण शास्त्री (श्रीकन्हैयाजी) को सम्पूर्ण दायित्व सौंपा है, जो कि पौत्र के साथ-साथ आपके कृपा पात्र शिष्य भी हैं । आपने अपने सारे गुण इनमें स्थापित कर दिये हैं ।

एक सद्गृहस्थ के सम्पूर्ण दायित्वों का निर्वहण कर ब्राह्मणबालकों के लिये भागवतशिक्षा की चिरस्थाई व्यवस्था कर “गृहेपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः” इस शास्त्रवचन के अनुसार सारे सत्कर्मों का जीवनपर्यन्त अनुपालन करते हुए अपनी ९२ साल की अवस्था पूर्ण कर आपने विगत मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष षष्ठी तिथि गुरुवार विक्रमसम्वत् २०७२ अर्थात् १७ दिसम्बर सन् २०१५ को अपना पार्थिव शरीर परित्याग कर नित्य निकुञ्जवास की ओर प्रस्थान किया है ।

अब हमारे पास आपके बताये हुए सत्कर्मों पर चलकर आपके लगाये इन शिक्षारूपी पौधों की सही देखभाल करना ही जीवन का चरम लक्ष्य रह गया है । वस्तुतः महापुरुषों की कभी मृत्यु नहीं होती । वे तो अपने कर्तव्यों, उपदेशों तथा जीवन के आदर्शों से हृदयपटल पर नित्य जीवित रहते हैं । ऐसे अद्भुत, कर्मनिष्ठ, श्रीमद्भागवत के परम उपासक, आजीवन लोककल्याण में निरत पूज्य गुरुदेव के चरणों में सहस्रों प्रणामाञ्जलि अर्पित करते हैं ।