जो मनुष्य अपना आचरण शुद्ध बनाते हैंं । और दूसरों के आचरण को भी परिष्कृत करते हैं । हमें उनके सानिध्य में रहना चाहिए जिससे हमारे मन की मलीनता दूर हो और हम दुष्टों की दुष्टता दूर कर सकें ( यजुर्वेद ३५/११ )
यदि हम दूसरों के चरित्र का निर्माण करना चाहते हैं तो पहले अपने जीवन में क्रान्ति उत्पन्न करनी होगी । अपने जीवन को सुधारकर उसमें विशेषता उत्पन्न करनी होगी । तभी आप दूसरों को सुधार सकेंगे, उनका उद्धार कर सकेंगे । जैसे एक जलता हुआ दीपक, लाखों बुझे हए दीपकों जला सकता है परन्तु लाखों बुझे हुए दीपक मिलकर भी एक दीपक को जला नहीं सकते । एक महापुरुष जिसमें जीवन ज्योति है लाखों लोगों को जीवन ज्योति प्रदान कर सकता है । उन्हें सन्मार्ग पर लगा सकता है, उनके जीवन में नव ज्योति फैला सकता है ।
जो व्यक्ति स्वयं शांत नहीं है, वह दूसरों को क्या शांति दे सकता है ? जो स्वयं ही अज्ञानी है वह दूसरों को ज्ञानवान कैसे बना सकता है ? जो तैरना नहीं जानता वह दूसरों को तैरना कैसे सिखा सकता है ? इसलिए दूसरों को शांति का पाठ पढ़ाने के पहले स्वयं शांत बनना पड़ेगा । दूसरों को ज्ञानवान और सच्चरित्र बनाने से पूर्व स्वयं ज्ञानवान और सच्चरित्र बनना होगा । पहले हम स्वयं आकर्षण का केन्द्र बनेंं लोग स्वयं हमारी ओर खिचेंगे ।
मनुष्यों को अपने आचरण में सद्गुणों का समावेश कर उसे शुद्ध , पवित्र और सुगंधित बनाना चाहिए । आलस्य और प्रमाद का त्याग करके जीवन में निरन्तता लायें । सेवा, सदाचार, सुशीलता और सज्जनता के द्वारा अपने को आकर्षण का केन्द्र बनायें । स्वयं तेजस्वी और ओजस्वी बनें । ऐसे व्यक्तियों के सम्पर्क में आने से समाज में अनेक व्यक्ति सन्मार्ग पर चलने लगते हैं । उनके दुर्गुणों का नाश और सद्गुणों में वृद्धि होने लगती है ।
पहले स्वयं कुमार्ग से हटो, उदार बनो, ऊंचे उठो, स्वयं चमको तभी तुम्हारे जीवन से दूसरों का जीवन प्रकाशित होता है । ऐसे ज्ञानी व्यक्ति ही समाज में यश पाते हैं । उनके सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों पर भी उनके सद्गुणों का प्रभाव पड़ता है ।
अग्नि से अग्नि जलती है, जीवन से जीवन प्रकाशित होता है, प्रीति से प्रीति बढ़ती है और बैर से बैर बढ़ता है इसलिए सद्गुणी व्यक्तियों का सम्पर्क चरित्र निर्माण में सहायक होता है ।