परमात्मा ने इस संसार में सभी को दीर्घायु बनाया है । लेकिन अनुचित आहार-विहार द्वारा अपने आयु को क्षय करता है आज का मानव । इसलिए नियम पूर्वक जीवन जीते हुए पूर्ण आयु प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का धर्म है । ( ऋग्वेद १०/१८/६ )
मानव जीवन की यह उपलब्धि है कि हम स्वस्थ रहकर, समाज में परोपकार करते हुए १०० वर्ष तक श्रेष्ठ और यशस्वी जीवन व्यतीत करें । हमारा जीवन बहुत अमूल्य और महत्वपूर्ण है, इसे बुरे कार्यों में नहीं बिताना चाहिए । इसलिए आप पुरुषार्थी बनें और दुराचार छोड़कर सदाचारी बनें । इससे मनुष्य पूर्ण आयु प्राप्त करता है ।
प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में श्रेष्ठ, यशस्वी और कीर्तिमान होने की कामना करनी चाहिए । उसे सदैव सद्कर्मों के द्वारा समाज के हित में काम करना चाहिए । जिस प्रकार संसार का उपकार करते रहने से सूर्य, चन्द्र तथा पवन को यश मिलता है, उसी प्रकार हम भी निस्वार्थ भाव से परोपकार का कार्य करें । कभी ऐसा कार्य न करें जो हमें अपयश का भागीदार बनाये । अपने जीवन से दोष-गुणों को मुक्त करके आसुरी वृत्तियों का पूरी तरह से दमन करके यशस्वी बनें यही सर्वश्रेष्ठ बनने का सर्वोत्तम मार्ग है । कुछ लोग अपने निज कार्यों से थोड़ा लाभ अवश्य पा जाते हैं, परन्तु; वे आंतरिक रूप से हमेशा उदास, दुःखी और परेशान रहते हैं, इसलिए हमें इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग करना चाहिए ।
हमें अपना समीक्षक स्वयं बनना चाहिए । हम स्वयं अपने आचरण की समीक्षा करते हुए पुरुषार्थी और सदाचारी बनकर यश को प्राप्त करें ।
संसार में सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए मनुष्य जो उच्च कोटी का ज्ञान, स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मस्तिष्क और उत्कृष्ट मनोबल चाहिए । ज्ञानी, विद्वान्, सदाचारी, परोपकारी और उदारमना व्यक्ति ही मनुष्यों में अपना सर्वोच्च स्थान बना सकता है । इसी से वह दैवीगुणों में वृद्धि करते रहने का साहस कर सकता है । दैवी गुणों से दिव्यता आती है तथा सुशीलता, तेजस्विता और प्राणशक्ति नें वृद्धि होती है । करुणा, प्रेम, दया, उदारता, सरसता, शिष्टता तथा विनय के प्रभाव से उसके व्यक्तित्व में निखार आता है और वह समाज में अद्वितीय, अनुपम और अग्रणी होने का सम्मान पाता है, दीर्घायु प्राप्त करने का यही प्रमुख साधन है । उचित आहार-विहार और व्यवहार से आप दीर्घायुष्य बनें ।