हे परमात्मा ! मेरे हृदय में भक्तिभाव और कर्मण्यता का विकास हो । मुझे आरोग्य और खुशहाल जीवन प्राप्त हो । मुझे बाह्य और आंतरिक दोनों तरफ से पवित्र बनाइए । ( अथर्व वेद ६/१९/२ )
मनुष्य जो बाहर और अन्दर से पवित्र रहना चाहिए क्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है । पवित्रता में चित्त की प्रसन्नता, शीतलता, शान्ति, प्रतिष्ठा और सच्चाई छिपी रहती है । चैतन्यता, जागरुकता, सुरुचि, सात्विकता, स्वछता, सादगी और सुव्यवस्था में ही सौन्दर्य है, इसी को पवित्रता कहते हैं ।
पवित्रता एक आध्यात्मिक गुण है । आत्मा स्वभावतः पवित्र और सुन्दर है इसलिए आत्मपरायण व्यक्ति के विचार, व्यवहार तथा वस्तुएं सदा स्वच्छ और सुन्दर होते हैं ।
मनुष्य को सदैव बाह्य और आंतरिक स्वच्छ्ता का ध्यान रखना चाहिए । अन्दर ( मन ) की पवित्रता से ही वह श्रेष्ठ, शालीन, सज्जन और सुसंस्कृत बनता है । मानसिक पवित्रता मनुष्य को तपस्वी, संयमी और नियमित जीवन की ओर प्रेरित करती है जिससे उसे स्वास्थ्य, आरोग्यता और दीर्घायु का वरदान मिलता है । उसकी इन्द्रियांं पुष्ट और सबल होती हैं । इन्द्रियों का संचालन मन द्वारा होता है । मन ही भली-बुरी इच्छाएं और अभिलाषाएं किया करता है और शरीर को भी प्रभावित करता है ।
शारीरिक और मानसिक पवित्रता के साथ ही आध्यात्मिक पवित्रता भी आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना मनुष्य जीवन के प्रधान लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकता । आध्यात्मिक पवित्रता से ही सच्चे, प्रेम, भक्ति, दया, उदारता, परोपकार की भावना जागृत होती है और देवत्व का विकास होता है । लोगों में प्रायः तमोगुण और रजोगुण की प्रधानता रहती है । आध्यात्मिक साधना सतोगुण को विकसित करती है । सतोगुणी बुद्धि ही मनुष्य को जीवंत और प्राणधन बनाती है, ओजस्वी, तेजस्वी और वर्चस्वी बनाती है । सत्संग, स्वाध्याय, सेवा, संयम और साधना की ओर प्रेरित करके यशस्वी बनाती है ।
मनुष्य को आत्मबल, तपबल, नैतिक बल और धर्माचरण की आवश्यकता होती हैं । यदि किसी में यह सब गुण नहीं है तो वह विद्वान और सही मायनों में मानव नहीं है । यह तभी सम्भव है जब मन बदल जाए, मनुष्य का सामान्य चरित्र बदल जाए । दिखावा और बाह्य आडम्बर से कुछ नहीं होता । ढोंग और दिखावा मनुष्य के शत्रु हैं लेकिन अधिकांश लोग इसी को पसंद करते हैंं । जिनकी कथनी और करनी में अन्तर नहीं होता है उन्हीं के हृदय में भक्ति और कर्मण्यता के भाव जागृत होते हैं । ऐसे लोग ही अपनी प्रतिभा के बल पर से लोगों के मन से तामसी और राजसी वृत्तियों को दूर करके उनमें सात्विकता का बीजारोपण कर उनके जीवन को शुद्ध और पवित्र बना देते हैं । इसी पवित्रता से जीवनोद्देश्य की प्राप्ति होती है ।