परमात्मा अनादि है, जिनको जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता है । इसी भावना को भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को माध्यम बनाकर कहा -“अर्जुन ! तुम मेरे परम प्रिय हो, मैं तुम्हारे हित के लिए कहता हूँ, सुनो “मेरे प्रगट होने को न देवता जानते है न महर्षि, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी आदि हूँ । यद्यपि देवताओं के शरीर, वृद्धि, लोक सब दिव्य है फिर भी वे मेरे प्राकट्य को नहीं जानते हैं । यही नहीं, उन्हें मेरे दर्शन भी कठिनता से प्राप्त होते हैं । जो मुझे अजन्मा, अनादि और सम्पूर्ण लोकों को ईश्वर जानता है वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है । सभी सत् और असत् भाव मुझसे ही उत्पन्न हैं ।
सातों महर्षि, सनकादि ऋषि और मनु, यह सब मेरे ही मन से पैदा हुए हैं और सदैव मुझमें श्रद्धा भक्ति रखते हैं । जो मेरे इस विभूतियोग को तत्व से जानता है वह भक्तियोग से युक्त हो जाता है । मैं संसार का मूल कारण हूँ और मेरी ही शक्ति से सम्पूर्ण संसार अपने कार्य की चेष्टाएं करता हैं ।ऐसा मानकर जो मेरा भजन करते हैंं, वे सब प्रकार से मेरी शरण में होते हैं ।
सबके मूल में परमात्मा है और परमात्मा से ही सबको शक्ति मिलती है, ऐसा ज्ञान होना आवश्यक है । जब सबके मूल में परमात्मा है तो सबका लक्ष्य भी परमात्मा ही होना चाहिए । साधक का उद्देश्य भगवत्प्राप्ति होनी चाहिए । मेरी विभूतियों का कोई अन्त नहीं है । मैं अनन्त हूँ, असीम हूँ । सम्पूर्ण प्राणियों का आदि, मध्य और अन्त मैं ही हूँ और प्राणियों के अंतःकरण में आत्मरूप से भी मैं ही स्थित हूँ ।
विनाशशील वस्तु के आदि-अन्त में जो तत्व रहता है वही उसके मध्य में रहता है । इसी तरह जीवन के आदि में भी परमात्मा तत्व है । अन्त में परमात्मा में ही उन्हें लीन होना है । मध्य में कर्म, स्वभाव, गुण के अनुसार विविध रूप होते हुए भी ये सभी परमात्मा स्वरूप है, वह मेरी ही विभूति है ।
मैं ही सबका बीज हूँ । मेरे बिना कोई भी प्राणी, स्थावर-जंगम, जड़-चेतन कुछ भी नहीं है । जब दृष्टि प्राणियों में आत्मरूप में वहाँ मैं ही विद्यमान रहता हूँ । सभी जीवों में मैं ही हूँ । इस तरह की भावना रखते हुए भक्त को भगवान् का चिन्तन करना चाहिए । मेरे दिव्य विभूतियों का अन्त नही है । मैं अनन्त हूँ तो मेरी विभूतियां भी अनन्त हैं । भगवान् अनन्त, असीम और अगाध हैं । करोड़ों करोड़ों ब्रह्माण्डोंं की रचना करने वाले भगवान् की ( मेरी ) विभूतियों का अन्त नहीं पाया जा सकता है इसलिए मेरे जिन-जिन गुणों का भाव जगे उसका ही चिन्तन, मनन और भजन करना चाहिए ।