आस्तिक नास्तिक

आस्तिक नास्तिक

एक गहन चिंतन को साधारण सी शैली में हम आपके सामने रखते हैं, कृपया एक बार उस पर ध्यान दें।

बड़े से बड़ा नास्तिक ( ईश्वर को न मानने वाला ) भी अंततः आस्तिक ( ईश्वर को मानने वाला ) ही सिद्ध होता है । यह वाक्य अपने आप में असम्भव सा दिखता है, लेकिन विवेचना करने पर स्पष्ट हो जायगा । कृपया निम्न तथ्यों पर ध्यान केन्द्रित करें ।

कोई कितना भी बड़ा नास्तिक क्यों ना हो, वह अपने अभाव से सदैव घबराता है अर्थात् वह कभी नष्ट नहीं होना चाहता और सदैव विद्यमान रहने की इसी भावना के जीवन्त रूप को ‘सत्’ कहते हैं ।

कोई कितना भी बड़ा आस्तिक क्यों ना हो, उसमें सर्वज्ञता अर्थात् सब कुछ जानने की इच्छा सदैव विद्यमान रहती है । हमें अमुक तत्त्व ज्ञात हो, अब अमुक तत्त्व का बोध हो, इतिहास, भूगोल, खगोल आदि सभी विषयों/तत्त्वों को जानने की इच्छा रहती है । इसी अखण्ड बोध की भावना को ‘चिद्’ समझना चाहिए ।

संसार का कितना भी बड़ा नास्तिक क्यों ना हो, वह आनंद के लिए व्यग्र ही रहता है । प्राणिमात्र के देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकारादि की जितनी भी चेष्टाएँ एवं हलचल आदि हैं, सभी आनंद के लिए हैं ।

किसी का स्त्री, पुत्र इत्यादि में प्रेम तभी तक है, जब तक वह उनके अनुकूल हैं, प्रतिकूल होते ही उनसे द्वेष हो जाता है, इसका कारण प्रत्येक प्राणी को सुख और आनंद ही प्रिय है ।

अब, यहाँ एक दार्शनिक सिद्धान्त का चिंतन करें – ‘अंश सदैव अपने अंशी की ओर ही आकृष्ट रहता है ।’ उदाहरण जैसे पानी सदैव सामन्यतया नीचे की ओर बहता है क्योंकि जल का मुख्य स्रोत समुद्र नीचे विद्यमान है, वहीं दीपक की लौ सदैव ऊपर की ओर जाती है, क्योंकि आकाश में प्रकाश के मुख्य स्रोत सूर्य की स्थिति है ।

प्रत्येक प्राणी में सत्, चिद्, आनंद के खोज की व्याकुलता प्रतीक्षण बनी रहती है । वास्तविकता में वह व्याकुलता ईश्वर के खोज की ही है । क्योंकि शास्त्रों में भगवान् को ही सत् चिद् आनन्द अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूप कहा गया है ।

आस्तिक इस रहस्य को जानकर भगवान् की खोज करता है और नास्तिक इस रहस्य को जाने बिना… परन्तु, जिस दिन नास्तिक व्यक्ति इस तथ्य को भली भाँति जान जायगा कि वह जिसकी खोज कर रहा है, वह ईश्वर ही है, उस दिन वह पूर्ण रूप से आस्तिक हुए बिना नहीं रह सकता ।

जिस प्रकार किसी छोटे बच्चे को प्यास लगी हो और वह यह नहीं जानता कि जिसको पीने से उसकी प्यास बुझेगी, उसका वास्तविक नाम जल है । आप कहेंगे कि बेटा! क्या जल लोगे ? वह मना कर देगा, क्योंकि वास्तव में उसे इस तथ्य का ज्ञान ही नहीं है कि जिस पेय पदार्थ से उसकी प्यास बुझेगी, वह जल है । उसी प्रकार नास्तिक व्यक्ति को जिस दिन यह गूढ़ रहस्य समझ आ गया कि वह अमर-अविनाशी स्वरूप परमात्मा का अंश है, इसलिए वह अमर होना चाहता है । वह आनन्द-सिंधु सुखराशि परमात्मा का अंश है, इसलिए उसका आकर्षण सदैव आनन्द व सुख की ओर रहता है । उसके अन्दर सर्वज्ञ होने की भावना है, क्योंकि वह सर्वज्ञ परमात्मा का अंश है ।

यहाँ केवल इतना ही कहना है कि जिस दिन व्यक्ति के अंदर यह बात मज़बूती से बैठ जाय कि वह भगवान् का अंश है और यही कारण है कि वह अमर ( सद् ), सर्वज्ञ ( चिद् ) होना चाहता है तथा चिर आनन्द की प्राप्ति करना चाहता है और यह सब तो भगवान् के ही स्वरूप के लक्षण हैं । तो इससे सिद्ध होता है कि वह जीव, भगवान् का अंश होने के कारण ही सिद्धान्ततः भगवान् को ही चाह रहा है । बस उसी दिन से उस व्यक्ति पूर्ण रूप से आस्तिक होने का अनुभव होने लग जायगा ।

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Vaidik Sutra