वेद ही सदाचारके मुख्य निर्णायक

वेद ही सदाचारके मुख्य निर्णायक

वेद कहते हैं कि यदि कोई मनुष्य साङ्ग समग्र वेदोंमें पारंगत हो, पर यदि वह सदाचार सम्पन्न नहीं  है तो वेद उसकी रक्षा नहीं करेंगे । वेद दुराचारी मनुष्य का वैसे ही परित्याग कर देते हैं, जैसे पक्षादि सर्वाङ्गपूर्ण नवशक्ति सम्पन्न पक्षी-शावक अपने घोंसलेका परित्याग कर देते हैं ।

प्राचीन ऋषियों ने अपनी स्मृतियों में वेदविहित सदाचार के नियम निर्दिष्ट किये हैं और विशेष आग्रह पूर्वक यह विधान किया है कि जो कोई इन नियमों का यथावत् पालन करता है, उसके मन और शरीर की शुद्धि होती है । इन नियमों के पालन से अंत में अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाता है । परंतु; व्यवहार-जगत् में इस बात का एक विरोध सा दिख पड़ता है । जो लोग सदाचारी नहीं है, वह सुखी और समृद्ध दिखते हैं तथा जो सदाचार के नियमों का तत्परताके साथ यथावत पालन करते हैं, वह दुःखी और दरिद्र दिखते हैं । थोड़ा विचार करने और धर्म तत्व को अच्छी तरह समझने का प्रयत्न करने पर यह विरोधाभास नहीं रह जाता ।

हिंदू धर्म पुनर्जन्म और कर्मविपाक के सिद्धांत पर प्रतिष्ठित है । कुछ लोग जो सदाचार का पालन न करते हुए भी सुखी समृद्ध दिख पढ़ते हैं, इसमें उनके पूर्व जन्म के पुण्य कर्म का ही कारण है और कुछ लोग जो दुःखी है उसमें उनके पूर्व जन्म के पाप का ही कारण हैंं । इस जन्म में जो पाप या पुण्य कर्म बन पड़ेंगे,  उनका फल उन्हें इसके बाद के जन्मों में प्राप्त होगा । 

इस समय कुछ ऐसा विधान है कि बड़े-बड़े गंभीर प्रश्नों के निर्णय उन लोगों के बहुमत से किए कराए जाते हैं जिन्हें इन प्रश्नों के विषय में प्रायः कुछ भी ज्ञान नहीं रहता । जो आत्मा चक्षु आदि से अलक्षित और भौतिक शरीर से सर्वथा भिन्न है, साथ ही अत्यंत सूक्ष्म होने से अचिंत्य है, उसके अस्तित्वके विषय में संदेह उठे तो उसका निराकारण केवल बुद्धि का सहारा लेने से कैसे हो सकेगा ? ऐसी शंका का निराकरण तो वेदोंं द्वारा तथा उन सदग्रंथों एवं सत्-युक्ति द्वारा ही हो सकता है, जो वेदों का आधार पर रचित है ।

इसी प्रकार यदि अज्ञानी लोग अपने विशाल बहुमत के बल पर निर्णय करें की धर्म यह है, तो उनके कह देने मात्र से कोई धर्म नहीं होता । सदाचार वह है जिसका वेद शास्त्रों में विधान किया है, जिसका सत्पुरुष पालन करते हैं तथा जो लोग ऐसे सदाचार का आचरण करते हैं, उन्हें यह सदाचार सुखी सौभाग्यशाली बनाता है । इसके विपरीत अनाचार है, जो वेद विरुद्ध है तथा जिसका सदाचारी परित्याग कर देते हैं । जो लोग ऐसे अनाचारमें रत रहते हैं, उनका भविष्य कभी अच्छा नहीं होता ।

विद्याध्ययन को संपन्न कर जब विद्यार्थी गुरुकुल से विदा होते हैं तब गुरु उन्हें उपदेश देते हैं :-

अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृतविचिकित्सा वा स्यात् । ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मर्शिनः । युक्त आयुक्ताः । अलूक्षा धर्मकामाः स्युः । यथा ते तत्र वर्तेरन् । तथा तत्र वर्तेथाः । ( तैत्तिरीयोपनिषद्, अनु ११ शिक्षावल्ली ) ‘यदि तुम्हें अपने कर्म के विषय में अथवा अपने आचरण के विषय में कभी कोई शंका उठे तो वहाँ जो पक्षपात रहित विचारवान् ब्राह्मण होंं, जो अनुभवी, स्वतंत्र, सौम्या धर्मकाम होंं,  उनके जैसे आचार होंं, तुम्हें उन्हीं आचारों का पालन करना चाहिए ।’ 

यह बहुत अच्छा होगा यदि बच्चों को बचपन से ही ऐसी बुरी आदत न लगने दी जायँ, जैसे मिट्टी की गोलियों से खेलना या दाँँतों से अपने नख काटना । विशेषतः बड़ों के सामने बच्चे ऐसा कभी ना करें । मनु ( ३-६३/६५ ) का यह कथन है कि ऐसे असदाचारी लोगों के कुटुंब नष्ट हो जाते हैं । हमारे ऋषि संध्या-वंदन और सदाचारमय जीवन के कारण अमृततत्व को प्राप्त हुए । इसी प्रकार हम लोग भी अपने जीवन में सदाचार का पालन करके सुख समृद्धि और दीर्घजीवन का लाभ प्राप्त कर सकते हैं सदाचार के नियम मूलतः वेदों में है । ( कल्याण )

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Vaidik Sutra